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माचिस संग्रहण यात्रा पार्ट 3
अब माचिस, जो बचपन में एकत्र की थी, वो थी, लिफाफे अलग - अलग, कैटेगीरी के हिसाब से, पर जो नहीं था, वो था डुपिलीकेट स्टाॅक, जिस से जल्दी जल्दी पैकेट एक्सचेंज किया जा सके और एक परेशानी थी माचिस को प्रर्दशित कैसे करें। कोई बताने वाला नहीं था, जैसा मन किया, वैसा रख लिया। बचपन में शुरूआत हुई लकड़ी की माचिस से। पहले उन्हें पानी में डुबाओ फिर लेबल उतारो, सुखाओ, उसमें एक समस्या थी के डुबाने के कारण कागज का नीला रंग लेबल पर चढ़ जाता था और कभी कभी गोंद की एक सफेद परत भी लेबल पर आ जाती थी, पर लेबल उतार कर काॅपी या स्कैच बुक या स्टाॅप एलबम में रखने की धुन सवार थी। अब सोच सोच कर अपनी अक्ल पर रोना भी आता है हंसी भी आती है। राम जाने, कितनी माचिसें अपने हाथों से तोड़ कर, लेबल उताारे। तब, उस जमाने में, कोई नहीं था देखने वाला, बताने वाला, तब गुंगे के गुड़ खाने वाली फींलिग आती थी, ना किसी को बता सकते हैं आनंद की अनुभूति की, पर आसपास के दोस्तों को तो प्रभावित कर ही लेते हो आप । तो दो दोस्तों ने शुरू किया, कुछ दिन सब ठीक ठाक चला, फिर एक मित्र की छित्तर परेड़ हुई, हम भी दुबके रहे कुछ महीने।
फिर काॅलेज के नोटिस बोर्ड पर एक पत्र लगाया गया, किसी राजीव का, इलाहबाद से, उसने अनुरोध किया था कि मेरे साथ माचिस एक्सचेंज करो। खुश हो गये, पत्र में 10 लेबल भेजे, वापिस भी मिले। इस तरह से पहला एक्सचेंज किया। राजीव भाई ने जो भेजा, लकड़ी का टाॅप ही भेजा, फिर हमने भी वैसे ही रखनी शुरू कर दी। कैमरा नहीं था, पर वो पत्र इनलैण्ड लेटर था नीला वाला, गजब की सुन्दर लिखाई थी, आज भी याद है, वरना फोटो आप के साथ शेयर करता।
कार्डबोर्ड वाली माचिस भी चलन में आ गई थी उन दिनों तक। उन्हें मैंने नहीं फाड़ा, पूरा ही रखा, पता नहीं क्यों ये गलती मेरे से क्यों नहीं हुई। बडे लिफाफे में छोटे लिफाफे और रबड़ बैण्ड से बन्धे ग्रुप और कैटेगरी। फिर बार बार रबड बैण्ड लगे बण्डल खोलने और बन्द करते वक्त कुछ माचिस लेबल खराब होने लगे, तो उन पर पारदर्शी छोटी पन्नी चढ़ाने लगा। कुछ समय तक स्क्रैच बुक का भी प्रयोग किया, पर मजा नहीं आया। छोटे शहर में रहने के ये ही मजे हैं, माचिस भरपूर हैं, बाकी सामान सिर्फ वो ही जो गारण्टी से बिक सके। कुछ ज्यादा नहीं मिलता था और आज तो आनलाईन का जमाना है, लोकल बाजार की निरर्भता जरा कम हो गई है।
तब दो चार मित्र थे जो माचिस संग्रह करते थे, छोड़ गये, एक दो ने तो सारा कलैक्शन मुझे गिफ्ट कर दिया। नई माचिस बाजार में, कहीं बाहर, कभी कभार ही मिलती थी। पर मैं भूला नहीं कि मैं माचिस एकत्र करता हूँ। जैसा पहले बताया फिर सोशल मीडिया ने इस को वापिस जीवित किया। फेसबुक पर मिले एक सज्जन ने मेरे को, 20 पाॅकेट वाली पारदर्शी शीट से अवगत करवाया। तब से आज तक सारी काॅलेक्शन इन्हीं शीटों में रखी है। प्रर्दशित करने के लिये या स्वयं देखने के लिए, मुझे ये सब से बढ़िया लगी।
उस समय का, जो बीत गया, जिसमें माचिस नहीं एकत्र की, किसी और से नहीं एक्सचेंज नहीं किया, बहुत दुःख होता है। पर मैनें अपने सब दोस्तों से निवेदन हमेशा किया के मुझ गरीब कैल्कटर को याद रखना, कोई माचिस मिले तो ले आना। लाये भी, तब भी, आज भी, उनका ये ऋण हमेशा रहेगा मुझ पर। मित्र हमेशा लाजवाब होते हैं।
फिर एक समय ऐसा आया माचिस मिलने लगी, एक्सचेंज में, दोस्तों से, बाजार से भी, तब एक विचार आता था के यह माचिस बहुत सुन्दर है, यह तो साधारण है, यह तो उस ब्राण्ड से प्ररित है, यह तो है पर इसकी साईड पट्टी अलग है, इस पर जो सिक्का छपा है उसका साल अलग है और भी कितनी भिन्नताएं, जिस से आप उसे अपने संग्रह में ना रखें सिर्फ उन्हें ही रखें जो आपके मन का भाए। पर मैंने मन को मार दिया और सिर्फ एक नियम के अन्तर्गत संग्रह किया माचिस अलग हो, चाहे किसी भी गुण की वजह से हो। आज भी ये ही नियम है। सब माचिस सुन्दर हैं, सब एकत्र करने योग्य हैं।
अगली बार बात करेंगे की कैटेगरी कितनी बनाएं और मैंने क्या किया। हमारे देश में माचिसों की भरमार है, इसलिए मैंने सिर्फ भारतीय माचिसों को एकत्र करने का सोचा, इतना ही हो सके तो बहुत। कुछ विदेशी माचिस भी हैं संग्रह में पर वो बस मिल गई, इच्छा नहीं की कभी उनकी। भारतीय माचिस हमेशा ज्यादा दिलखुश करती हैं। यह मैंने पहली कैटेगरी बनाई, भारतीय माचिस। बाकी अगली बार। धन्यवाद।
Beautiful sir. Allahabad ki Rajib ji keya abhi bhi collection karte hai sir?
ReplyDeleteno idea sirji
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